मातृभूमि पर निवास करने वाले मनुष्य राष्ट्र का दूसरा अंग हैं। पृथ्वी हो और मनुष्य न हों तो राष्ट्र की कल्पना असम्भब है। पृथ्वी और जन दोनों के सम्मिलन से ही राष्ट्र का स्वरूप सम्पादित होता है।

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